Describe graphically the design principle and working method of cyclotron.
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♦ साइक्लोट्रॉन (Cyclotron ) ♦
साइक्लोट्रॉन एक ऐसी युक्ति है जो आवेशित कणों अथवा आयनों को उच्च ऊर्जाओं तक त्वरित करने के लिए प्रयुक्त होती है। इसका आविष्कार ई. ओ. लॉरेन्स तथा एम. एस. लिविंग्सटन ने सन् 1934 में नाभिकीय संरचना सम्बन्धी शोध कार्यों में आवश्यक उच्च ऊर्जा वाले आवेशित कणों को प्राप्त करने के लिए किया था।
सिद्धांत :- यदि किसी धनावेशित कण को उच्च आवृति के विधुत क्षेत्र मे प्रबल चुम्बकीय क्षेत्र का प्रयोग करके बार बार गति कराई जाती है तो वह त्वरित होता है तथा पर्याप्त मात्रा में अत्यधिक ऊर्जा प्राप्त कर लेता है।
बनावट :-
साइक्लोट्रॉन में धातु की प्लेट से बने दो खोखले गोले D आकृति के होते हैं जिन्हें डीज कहते हैं। दोनो डीज के बीच मे थोड़ा खाली स्थान रहता है तथा इन्हें उच्च आवृत्ति के विद्युत दोलित्र से चित्र के अनुसार जोड़ा जाता है ताकि दोनों डीज के बीच उच्च विभवांतर 10⁴ V उत्पन्न हो। इस व्यवस्था को प्रबल चुंबकीय ध्रुव के बीच रखा जाता है। विद्युत तथा चुंबकीय क्षेत्र एक दूसरे के लंबवत कार्य करते हैं।
कार्य- विधि :- यदि धन आवेशित कण को दोनों डीज के बीच खाली स्थान में रखते हैं तो वहां प्रबल विद्युत क्षेत्र द्वारा त्वरित होता है। डीज के तल के लंबवत चुंबकीय क्षेत्र आरोपित किया जाता है जो कण को वृत्तीय गति प्रदान करता है। यदि आवेशित कण एक डीज से दूसरे डीज में जाता है तो उसका वेग बढ़ता है जिसके फलस्वरुप उसकी त्रिज्या बढ़ जाती है। दोलित विद्युत क्षेत्र बार-बार त्वरित कर उच्च गतिज ऊर्जा प्रदान करते हैं तथा अंत में Difflector द्वारा बाहर निकाल लिया जाता है।
चुंबकीय क्षेत्र B के कारण आवेशित कण वृत्तीय गति करती है अतः चुंबकीय बल द्वितीय गति के लिए आवश्यक अभिकेंद्रीय बल प्रदान करता है।
Fm = mv²/r
अत:
qvB = mv²/r
V = qBr/m
यदि आवेशित कण का आवर्तकाल t हो तो
V = 2πr/t
2πr/t = qBr/m
1/t = qB/2πm
∴ आवृत्ति ν = 1/t = qB/2πm
इसे साइक्लोट्रॉन आवृत्ति कहते हैं। आवेशित कण की महतम गतिज ऊर्जा
K.Emax = 1/2 mv²
= 1/2 m(qBr/m)²
= 1/2 (q²B²r²/m)
उपयोग : –
(i) नाभिक पर बमबारी करके नाभिकीय प्रतिक्रियाओं के अध्ययन में।
(ii) ठोस पदार्थों में कणों को रोपित करके उनके गुणों के सुधार करने तथा नये पदार्थ को संश्लेषित करने में।
(iii) रोग उपचार के लिए Radioactive पदार्थों को उत्पन्न करने में।
सीमाएं :-
उच्च वेग पर वेग बदलने से कण का द्रव्यमान भी बदलता है। अतः इस कारण वृत्तीय पथ पर चलने में समय बदलेगा। अतः इसका कार्य एक सीमित वेग के अन्दर ही रहेगा।
Describe graphically the design principle and working method of cyclotron.
चुम्बकीय क्षेत्र में गतिमान आवेश पर बल से चुम्बकीय क्षेत्र में धारावाही चालक पर बल की व्याख्या –
माना एक L लम्बाई तथा A अनुप्रस्थ परिच्छेद का एक चालक समरूप चुम्बकीय क्षेत्र B में क्षेत्र की दिशा से θ कोण बनाते हुए रखा है और इसमें i ऐम्पियर की विद्युत धारा प्रवाहित हो रही है।
यदि चालक के एकांक आयतन में उपस्थित मुक्त इलेक्ट्रॉनों की संख्या n तथा मुक्त इलेक्ट्रॉनों का अनुगमन वेग vd हो, तो चालक में प्रवाहित धारा i = neAvd ………….(i)
जहाँ e = इलेक्ट्रॉन का आवेश
चालक में कुल मुक्त इलेक्ट्रॉनों की संख्या = n(A × L)
लॉरेन्ज बल के समीकरण F = qvB sinθ
F = evdB sinθ
पूरे चालक पर बल F = मुक्त इलेक्ट्रॉनों की संख्या x एक इलेक्ट्रॉन पर बल
F = n(A × L) × evdB sinθ
F=(ne.Avd ) LB sinθ
परन्तु समीकरण (i) से
ne.Avd = i
F = iLB sinθ |
यही चुम्बकीय क्षेत्र में धारावाही चालक पर लगने वाले बल का सूत्र है।
चुम्बकीय क्षेत्र में धारावाही चालक पर लगने वाले बल की दिशा-निर्धारण सम्बन्धी नियम :-
चुम्बकीय क्षेत्र में स्थित धारावाही चालक पर लगने वाले बल की दिशा निम्न दो नियमों में से किसी भी नियम से निर्धारित की जा सकती है।
(i) दायें हाथ की हथेली का नियम —
अपने दायें हाथ का पंजा पूरा फैलाकर इस प्रकार रखिये कि अंगूठा विद्युत धारा (i) की दिशा में तथा फैली हुई उँगलियाँ बाह्य चुम्बकीय क्षेत्र (B) की दिशा में हों, तो चालक पर लगने वाला बल (F) हथेली के लम्बवत् हथेली से धक्का देने की दिशा में होगा।
(ii) फ्लेमिंग का बायें हाथ का नियम —
यदि हम अपने बायें हाथ का अँगूठा तथा उसके पास वाली पहली उँगली (fore finger) तथा मध्य उँगली (central finger) को इस प्रकार फैलायें कि तीनों परस्पर लम्बवत् रहें, तब यदि पहली उँगली चुम्बकीय क्षेत्र (B) की दिशा को तथा मध्य अँगुली विद्युत धारा (i) की दिशा को प्रदर्शित करती है तो अँगूठा चालक पर लगने वाले बल (F) की दिशा को प्रदर्शित करेगा।
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